चण्डीगढ़ : आर्य समाज, सैक्टर 7-बी में वेद प्रचार सप्ताह के अन्तर्गत, श्रावणी पर्व के सुअवसर पर आर्य जगत के सुप्रतिष्ठित विद्वान आचार्य राजू वैज्ञानिक ने प्रवचन के दौरान कहा कि कर्म की गंगा विचार से उत्पन्न होती है। जैसा चिंतन करोगे वैसा ही कर्म होगा। कर्म के अनुसार सुख- दुख की प्राप्ति होगी। यदि मन शुद्ध है तो कर्म शुद्ध होंगे। कर्म शुद्ध होने से सुख मिलेगा। शुभ कर्मों से मानव तन की प्राप्ति होगी। इस प्रकार एक ही निशाने से कई सिद्धियां प्राप्त होती हैं। अब से लेकर जब तक जीवन है, उत्तम कर्म करने चाहिए। उत्तम कर्म दैनिक होते हैं। जैसे शरीर के लिए भोजन की आवश्यकता है। वैसे ही प्रतिदिन मन के लिए उत्तम कर्म अनिवार्य हैं। श्री कृष्ण ने तीन उत्तम कर्म बताए हैं। प्रथम यज्ञ, द्वितीय दान और तृतीय तप है। यज्ञ से तीनों से शारीरिक आत्मिक सामाजिक मानसिक आध्यात्मिक आर्थिक सभी प्रकार के उत्थान होते हैं। महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने इस पर बल दिया है। यज्ञ जीवन का मूल आधार है। यह प्रतिपल और प्रतिक्षण होते हैं। जितने भी उत्तम कर्म बिना आसक्ति और अहंकार के किए जाते हैं, यज्ञ कहलाते हैं। जो किसी मार्ग के निष्कंटक बनते हैं, परमेश्वर उनके जीवन में सुख एवं खुशहाली लाता है। सेवा भी यज्ञ है। उचित पात्र की ही सेवा करनी चाहिए। मरुस्थल में बारिश का होना आवश्यक है। नदी में होना कोई मायने नहीं रखता है।