चण्डीगढ़, 23.07.25 : ऋषि सेवा समिति, चण्डीगढ़ के तत्वाधान मे चल रही सेक्टर 32 डी स्थित सनातन धर्म मंदिर में भागवत कथा के तृतीय दिवस को पूज्य ऋषि जी ने कहा कि इस राष्ट्र का नाम भरत के नाम से भारतवर्ष पड़ा। भरत जी जो भी कर्म करते थे कर्मफल परमात्मा को अर्पण करते थे। कर्मफल भगवान को अर्पण करने से अनन्त फल की प्राप्ति होती है। उन्हें युवावस्था में वैराग्य हुआ व राज्य छोड़कर वन में जाकर भगवान की सेवा करने लगे। मानसी सेवा श्रेष्ठ कही गई है जिससे अंतः करण शुद्ध होता है। अधिकतर पाप शरीर से नहीं, मन से होता है। उनका मन मृगवाल में फंसा। हरि चिंतन घटने लगा और हरिण चिंतन बढ़ने लगा। अनावश्यक आसक्ति शक्ति को घटाती है। मृग चिंतन करते हुए उन्होंने शरीर छोड़ा फलत अगला जन्म मृग रूप में हुआ। जीवन इस प्रकार जियो कि तुम सावधान रहो और मृत्यु आए। कही ऐसा न हो कि तुम्हारी तैयारी न हुई हो और मृत्यु तुम्हें उठा ले जाए। सौरभ ऋषि जी ने बदलेगा किस्मत सांवरिया भजन गाया तो लोग आनन्द विभोर हो नृत्य करने लगे। ज्ञान, धन या प्रतिष्ठा कमाने के लिए नहीं बल्कि परमात्मा प्राप्ति के लिए है। राजा रहूगण को जडभरत ने उपदेश देते हुए कहा कि मन के बिगड़ने से संसार बिगड़ जाता है। रावण हिरण्याक्ष का मन बिगड़ गया अतः उनका संसार बिगड़ गया। जीव को अनावश्यक आसक्ति छोड़कर प्रभु की भक्ति करनी चाहिए। दुःख सहकर ईश्वर का भजन करने से पाप नष्ट होते हैं।