HISAR,11.04.24-आज मैंने सोचा कि किसी और को क्यों देखूं ? अपने ही गिरेबान में झांक कर देखूं कि मेरे अंदर कितने आदमी हैं ? कैसे एक कमलेश भारतीय इतने चेहरे लगा लेता है ?
मित्रो ! मेरे होशियारपुर,(पंजाब) में जन्म के बाद पालन पोषण नवांशहर के शारदा मुहल्ले में हुआ यानी ब्राह्मणों के बीच एक सरीन (खत्री ) परिवार का बेटा पला बढ़ा । पूरे सैंतीस साल उस मोहल्ले में रहा और ऐसे माहौल में जहां रसोई में नंगे पैर ही जा सकते थे और अंडे मीट मांस की चर्चा तक गुनाह थी । शुद्धता , पांडित्य और पोथी पत्री बांचने , भविष्य बताने वाले, ग्रहदोष टालने वाले भी थे । इसी के चलते हमें भी कुछ दोस्त पंडित जी पुकार लेते थे । कभी बुरा नहीं लगा ।

इसके बावजूद हमारा गांव था तीन चार किलोमीटर दूर सोना नाम से । वहां हमारी खेती थी , हवेली थी और रोज़ शाम वहीं गुजरती । पहले पिता जी के साथ । वे गांव के नम्बरदार भी थे । लगान वसूल करने जाते तब भी साथ रहता और कोर्ट कचहरी में गवाही देने जाते तब भी साथ देता । यानी गांव के लोगों से सीधे सीधे वास्ता रहता । वे अपने ढंग से बातचीत करते । अनाज मंडी और गन्ने की पर्ची लेकर गन्ना मिल भी जाते । इस तरह मेरी एक साथ अनेक अलग अलग दुनिया थीं । अलग अलग व्यवहार । अलग अलग चेहरे । पिता जी के अपने जीवन से जल्द विदा हो जाने पर पढ़ाई के साथ साथ न केवल खेती बल्कि मेरे नाम नम्बरदारी भी आई और आज तक मेरे नाम चल रही है । बेशक यह काम मैंने कभी नहीं किया । पहले अपने ही परिवार के एक सज्जन को दिये रखा और फिर उनके बाद अपनी खेती संभालने वाले दुम्मण को सौंप रखा है । सरकारी कागजों में नम्बरदार बनने का सुख है तो मेरा एक चेहरा यह भी है । कभी कभार दूसरों के कागज तस्दीक भी कर देता हूं जब कभी अपने शहर जाना होता है । हां , छोटी उम्र में ही नवांशहर से राजनीति करने वाले दिलबाग सिंह सैनी के करीब आया और पूरा साथ दिया हर चुनाव में । आखिरी समय जब वे पंजाब के कृषि मंत्री बने तो मुझे अपना ओएसडी बनाने के लिए बुलाया तब मना कर दिया क्योंकि राजनीति कभी मेरी मंजिल नहीं रही । दैनिक ट्रिब्यून में ही इक्कीस साल बिता दिये । फिर एक और बड़े नेता मिले हरियाणा में, भूपेंद्र सिंह हुड्डा जो ले गये हरियाणा ग्रंथ अकादमी का उपाध्यक्ष बना कर । यह भी एक चेहरा हो सकता है मेरा जबकि मैं वही कलम का सिपाही बन कर खुश हूं ।

पढ़ाई लिखाई कर शहीद भगत सिंह के गांव में आदर्श स्कूल में पहले हिंदी प्राध्यापक बना और बाद में प्रिसिपल बना । इस तरह एक चेहरा मेरा शिक्षक और नसीहतें देने वाला भी हो सकता है । फिर चंडीगढ़ आया दैनिक ट्रिब्यून में उपसंपादक बन कर । सात साल रहा और एक महानगर जैसे शहर का बाशिंदा बना लेकिन वह गांव का आदमी ही रहा । शेखर जोशी की कहानी दाज्यू का नन्हा सा हीरो जो हर कदम पर छला जाता है । वह गांव वाला भोलापन नहीं गया । और न जाये , यही दुआ है मेरी रब्ब से । मेरे अंदर बच्चा जिंदा रहे ।
सब कुछ सीखा हमने न सीखी होशियारी

सच है दुनिया वालो कि हम हैं अनाड़ी,,,, गीत अक्सर गुनगुनाता हूं । लोग इस बात का फायदा उठा कर जब चलते बनते हैं तब सोचता हूं कि अगली बार सावधान रहूंगा पर सावधान कभी न हुआ और जिसका जोर चला वह छल कर चलता बना । यह चेहरा भी है मेरा ।
आर्य समाज से मेरे नाना जुड़े थे और मेरी दादी मंदिर लेकर जाती हर सुबह शाम । वे मूलतः सिख परिवार से थीं । इस तरह दो अलग अलग चेहरे ये भी रहे । ननिहाल जाऊं तो हवन में बैठूं और नवांशहर रहूं तो दादी के साथ मंदिर जाकर आरती करूं ।

अब सोचता हूं कि मेरा कौन सा चेहरा असली है ? शारदा मुहल्ले वाला लड़का या गांव वाला या फिर बहुत नर्म , दयालु या एक ओशो की किताबें पढ़ने वाला थोड़ा सा संन्यासी जैसा ? थोड़ा सा ब्राह्मणों जैसा और थोड़ा सा गांव के अनाड़ी जैसा ? कैसा हूं मैं ? कितने चेहरे हैं मेरे ? प्यार करूं तो पूरा करूं और जब गुस्से हो जाऊं तो गांव वाले की तरह पूरा गुस्सा करूं । बिखर बिफर जाऊं गुस्से में । कोई छिपाव नहीं भावों का । कितने वर्ष वामपंथी विचारधारा से जुड़ा रहा और कहानियों में अपनी बात रखी । कौन हूं मैं ? कामरेड , ओशो के विचार या स्वामी दयानंद से सीख लेने वाला ? कौन हूं और क्या हो सकता था ? क्या हो गया ? प्रिंसिपल था , पत्रकार कैसे बनता चला गया ? क्या कर पाया ? क्या कुछ और बनना अभी बाकी है ? सोचता रहता हूं और अपने ही अनेक चेहरे देखता रहता हूं और निदा का शेर याद कर मुस्कुरा देता हूं ,,
जिसको भी देखना बड़े गौर से देखना
लेकिन मैं तो अपने-आपको ही गौर से देख रहा हूँ और एक और शेर के साथ बात खत्म कर रहा हूं :
धूल चेहरे पर जमी थी
और मैं आइना साफ करता रहा ,,,,