CHANDIGARH, 08.11.24-रवींद्र कालिया हमारे जालंधर के थे, जो हमारा जिला था, नवांशहर का । हालांकि उनसे कोई मुलाकात नहीं लेकिन अपनी मिट्टी से जुड़े होने से अपने से लगते रहे, लगते हैं अब तक । जिन दिनों हरियाणा ग्रंथ अकादमी के उपाध्यक्ष के नाते कथा समय पत्रिका का संपादन किया, उन दिनों रवींद्र कालिया से फोन पर कहानी प्रकाशित करने की अनुमति मांगी जो सहर्ष मिल गयी और फिर ममता कालिया की कहानी भी प्रकाशित की, यह मिट्टी का कर्ज़ और फर्ज़ चुकाने जैसा भाव था । मेरे दोस्त फूलचंद मानव ने कहा कि अब तो तेरे लिए नया ज्ञानोदय के रास्ते खुले हैं ! मैंने जवाब दिया कि ऐसा कभी नहीं होगा क्योंकि रवींद्र कालिया के संपादक होते मैं कहानी भेजूंगा ही नहीं और न ही भेजी क्योंकि स़पादन आदान प्रदान नहीं होता । रवींद्र कालिया ने जालंधर के उन दिनों लोकप्रिय दैनिक हिंदी मिलाप में उप संपादक के रूप में शुरूआत की और फिर भाषा, धर्मयुग, ज्ञानोदय, गंगा जमुना और नया ज्ञानोदय के बीच वर्तमान साहित्य के कहानी को केंद्र में रखते हुए दो महा विशेषांकों का संपादन किया लेकिन कृष्णा सोबती की ऐ लड़की पर पहले ही लिखवाये तीन पत्रों से निर्मल वर्मा इतने नाराज़ हुए कि रवींद्र कालिया को खत लिखा कि मुझे तुम्हें कहानी भेजनी ही नहीं चाहिए थी । मेरी बहुत बड़ी भूल थी यह ! हालांकि जिस कृष्णा सोबती के मुरीद थे रवींद्र कालिया, उसी कृष्णा सोबती ने तद्भव में प्रकाशित अपने ऊपर लिखे रवींद्र कालिया के संस्मरण पर नाराजगी जताते हुए उन्हें छह फुटिया एडीटर कहकर अपमान किया और रवींद्र कालिया को बहुत दुख हुआ पर ऐसे हादसों के कालिया जीवन भर आदी रहे । ममता कालिया लिखती हैं कि इतने उदास रवि अपने माता पिता के निधन पर नहीं देखे थे, जितने कृष्णा सोबती के ऐसे व्यवहार पर ! बाद में दोस्ती करने के लिए पत्र भी लिखा, जिसके साथ रवि कथा समाप्त होती है।
ये बातें रवींद्र कालिया पर उनकी पत्नी से ज्यादा प्रेमिका व हिंदी की सशक्त और वरिष्ठ रचनाकार ममता कालिया ने रवि कथा मे लिखी हैं और यह भी कहा कि वे दोनों प्रेमी प्रेमिका ज्यादा थे, पति पत्नी कम यानी साहित्यिक लैला मजनूं से किसी भी तरह कम नहीं थी यह जोड़ी और अद्भुत जोड़ी-अलग संस्कृति, अलग भाषा, अलग स्वभाव लेकिन निभी तो खूब निभी दोनों ने ! जैसे अनिता राकेश ने मोहन राकेश के बाद चंद सतरें और लिखी और चर्चित रही, वैसे ही ममता कालिया ने रवि कथा लिखी, जो बहुचर्चित हो रही है, इतनी कि अट्ठाइस दिन में ही इसके दो संस्करण बिक गये । कारण यह कि इसमें रवींद्र कालिया के बहाने सिर्फ प्रेमकथा नहीं लिखी गयी बल्कि यह कहानी की कम से कम तीन पीढ़ियों की कथा है, यह लेखकों के छोटे बड़े किस्सों, चालाकियों, संपादकों की छोटी छोटी लड़ाइयों के किस्से हैं और हम जैसी पीढ़ी के लिए बहुत सारे खज़ाने हैं इसमें ! कितने सारे सबक भी लिये जा सकते हैं रवींद्र कालिया के अनुभवों से और वे पूरी तरह लापरवाही से ज़िंदगी गुजार गये ! बच्चों से प्यार इतना कि बंदरों से बचाने के लिए खुद बेटे के ऊपर लेट गये, छत से कूद कर आये और सोये बेटे को नहीं जगाया, चोट खा गये ! ममता कालिया को इतना प्यार दिया कि जब जब मुम्बई या इलाहाबाद में नौकरी छूटी, हमेशा कहा कि अच्छे हुआ ! मां का सम्मान और भाई बहनों से अथाह प्यार पर अंग्रेजियत से बुरी तरह चिढ़ ! ममता कालिया के पिता जितना बेटियों को कुछ बड़ा देखना चाहते थे, बेटियों ने प्रेम विवाह किये और ममता कालिया के मन में था कि जीजू से लम्बा पति चाहिए और मिला रवींद्र कालिया के रूप में !
यह रवि कथा जीवन, साहित्य, संपादन और दोस्तियों का इलाहाबादी महासंगम कहा जा सकता है । मैं फिर कह रहा हूं कि बीस सितम्बर की छोटी सी मुलाकात में ममता कालिया ने मुझे तीन किताबें देकर बहुत बड़ा अमूल्य उपहार दिया और मैं भी हिसार आते ही पढ़ने में डूब गया । अब सिर्फ गालिब छुटी शराब ही बच रही है, जिसे ब्रेक के बाद जल्द शुरू करूंगा पर मन में एक मलाल भी लगातार यह कि हाय ! जीवन में रवींद्र कालिया से मुलाकात क्यों न हुई ! हां, अंतिम पन्नों पर बहुत खूबसूरत फोटोज देखकर लगा कि रवींद्र कालिया मेरे भी सामने हैं !